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जीने की लत

राजीव उपाध्याय
राजीव उपाध्याय
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जीने की लत

जो हमने है पाली

आज वही मारे जाती है

जीने की लत……….॥


जीता हूँ दिल पर

बोझ लिए अब

रात अंधेरी

है काटे हरदम।

जब बोझिल

कुछ कदम बढाऊँ

राह मुझे छोड़े जाती है॥

जीने की लत……….॥


इक पल

मुझको चैन मिले जो

सिलवटें मगर

नज़र कुछ आती हैं।

कुछ चुप रहतीं हैं

कुछ कहतीं

फ़िर हाथ पकड़कर

जाने कहाँ

ले जाती हैं

जीने की लत……….॥

© राजीव उपाध्याय

स्वयं शून्य

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